Pappu Tea Stall: असी घाट की वह चाय जो मोदी युग की राजनीति का आईना बन गई

Pappu Tea Stall: असी घाट की वह चाय जो मोदी युग की राजनीति का आईना बन गई सित॰, 17 2025

एक आम-सी चाय दुकान, और प्रधानमंत्री का अचानक रुक जाना। कुल्हड़ में चाय का एक घूंट—और उसी रात से वह जगह देश की राजनीतिक स्मृतियों का हिस्सा। वाराणसी के असी चौराहे की Pappu Tea Stall 4 मार्च 2022 के बाद सिर्फ एक दुकान नहीं रही; यह बनारस में राजनीति, साहित्य और शहर की रगों में दौड़ती बातचीत का जीवंत प्रतीक बन गई।

असी का वह मोड़ जहां चाय राजनीति से मिलती है

उस दोपहर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रोडशो काशी विश्वनाथ धाम में पूजा-अर्चना के बाद गोडौलिया, मदनपुरा, सोनारपुरा और शिवाला होते हुए लंका गेट की तरफ बढ़ रहा था। असी पहुंचते ही काफिले की रफ्तार धीमी हुई, और प्रधानमंत्री कार से उतरे। यूनियन मंत्री धर्मेंद्र प्रधान वहीं इंतजार कर रहे थे। कुछ मिनटों की मुलाकात, कुल्हड़ में गर्म चाय, और आसपास खड़े लोगों से हल्की-फुल्की बातचीत—बारह से पंद्रह मिनट में वह दृश्य इतिहास बन गया।

इस एक रुकावट ने दुकान की तकदीर पलट दी। मालिक पप्पू, जो सालों से शहर के प्रोफेसरों, पत्रकारों, कलाकारों और सैलानियों की मेजबानी करते रहे हैं, उस दिन भावुक होकर बस इतना कह पाए—“हमारी चाय को पहचान मिल गई।” इसके बाद आने वाला हर दिन पहले से ज्यादा व्यस्त निकला। स्थानीय लोगों के साथ दूर-दराज़ से आए यात्रियों का रेला, और मोबाइल कैमरों के सामने कुल्हड़ों की कतारें—ग्राहकों की भीड़ दोगुनी बताई गई। रिश्तेदारों के फोन बिहार, दिल्ली, पटना, मुंबई और सासाराम तक से आए—“टीवी पर तुम्हारी दुकान दिखी!”

यह दुकान असी घाट से पैदल पंद्रह मिनट की दूरी पर है। सड़क पर सब कुछ है—सब्जी, किराना, छोटे कैफे, धार्मिक ग्रंथ, रुद्राक्ष की माला, पीतल की मूर्तियां, मिट्टी के बर्तन। इनके बीच चाय की भाप और खट्टी-मीठी बहसों की खुशबू इस ठिकाने को अलग बनाती है। यहां रुकना एक रूटीन नहीं, एक अनुभव है—जो सोशल मीडिया पर सेल्फी प्वाइंट बनने से पहले बनारसियों के दिल में जगह बना चुका था।

आज दुकान के संचालन की जिम्मेदारी मनोज और उनके भाई मनीष और सतीश संभालते हैं। लगभग आठ दशक पहले एक पूर्व-सैनिक ने इसे शुरू किया था। समय बदला, लोग बदले, बहस के मुद्दे बदले—लेकिन कुल्हड़, बनारसी गमछा और बातचीत का लोकतंत्र जस का तस रहा।

पीएम के दौरे के बाद इस ठिकाने पर बीएचयू के कुलपति सुधीर के. जैन भी चाय पीते दिखे। उन्होंने अपने फेसबुक पोस्ट में इसे “ऐतिहासिक ठिकाना” कहा और दुकान की चाय के ‘खास अंदाज’ का जिक्र किया। यह अलग-अलग दुनिया—शासन-प्रशासन, अकादमिक, कला और आम शहरियों—को एक मेज के आसपास बैठा देने वाली जगह है।

अब सवाल—एक चाय दुकान राजनीति का आईना कैसे बनती है? जवाब उतना ही सीधा है जितना कुल्हड़ का स्वाद। उत्तर भारत में चाय-ठेलों पर “चाय पे चर्चा” कोई नारा नहीं, जीवनशैली है। सड़कों पर, नुक्कड़ों पर, कॉलेज गेट के पास, बस स्टैंड या घाट के किनारे—यहीं पर रोज़ के मुद्दे चुने और खारिज होते हैं। नेताओं के रोडशो जब इन्हीं जगहों को छूते हैं तो वह प्रतीक बन जाते हैं—“हम यहीं से सुनते हैं, और यहीं से बोलते भी हैं।”

असी चौराहे की यह दुकान उसी परंपरा की जीवित मिसाल है। यहां भाषा मुलायम है, तर्क तेज। कोई काशी विश्वनाथ धाम की चर्चा करता है, तो कोई गंगा के घाटों की सफाई पर बहस छेड़ देता है। कोई छात्र यूनिवर्सिटी की राजनीति पर बोल उठता है, तो ऑटो चालक महंगाई पर अपनी बात जोड़ देता है। अलग विचारधाराएं एक ही टेबल पर बैठती हैं, और चाय के बाद घुल जाती हैं—या नए सिरे से तीखी हो उठती हैं।

  • सुबह: अखबार, पहली चाय, शहर की ताजा खबरें—सड़क, सफाई, पानी, बिजली।
  • दोपहर: छात्र, शोधार्थी, अध्यापक—BHU से कदमों की आहट और खो खोकर बहसें।
  • शाम: सैलानी, नाविक, दुकानदार—घाटों के किस्से, मिथक और यादें।
  • रात: राजनीति, क्रिकेट, सिनेमा—और अगले दिन वापस आने का वादा।

पीएम मोदी की वह अचानक चाय सिर्फ फोटो-ऑप नहीं थी। असी—जहां साहित्य, संगीत, संस्कृत, दर्शन, योग और रंगमंच की धारा मिलती है—वहां की राजनीति जमीन पर उतरती है। 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान यह रुकना चुनावी मौसम की नब्ज टटोलने जैसा था—जहां चाय का तापमान बहस के तापमान से मेल खाता है।

किताबों से कूच तक: अड्डों की परंपरा और बदलता बनारस

यह दुकान सिर्फ समकालीन राजनीति का केंद्र नहीं, बनारस की सांस्कृतिक स्मृति का भी हिस्सा है। हिंदी के वरिष्ठ लेखक काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘काशी का असी’ में यह जगह एक किरदार की तरह जीवित है—जहां अमीर-गरीब, साहित्य-राजनीति, संस्कृत-लोकभाषा सब एक गमछे के साये में बराबर खड़े दिखते हैं। किताब में ‘भांग’ उतनी ही सांस्कृतिक है जितनी ‘चाय’—बातचीत के लिए ऊर्जा, और बहस के लिए खुला मैदान। यह साहित्यिक चित्रण बताता है कि बनारस में विचार सिर्फ किताबों में नहीं, अड्डों पर भी लिखे जाते हैं।

1960 के दशक में इसी शहर के ‘केदार टी स्टॉल’ जैसे ठिकाने कवि-लेखकों से गुलजार रहते थे। केदारनाथ सिंह, विजयमोहन, विद्यसागर नौटियाल, विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे नाम यहां की यादों में बसे हैं। नमवर सिंह और त्रिलोचन शास्त्री की उपस्थिति सबको खींचती थी। बहसें अक्सर पास के ‘तुलसी पुस्तकालय’ तक जातीं, जहां किताबों की खुशबू में विचार पूरे होते। पप्पू की दुकान उसी परंपरा की आज की कड़ी है—जहां छात्र किसी नयी किताब का जिक्र छेड़ते हैं और सामने बैठा दुकानदार कीमतों की गिनती करते हुए भी सुनता है।

इस दुकान की सबसे बड़ी ताकत है—इंटरसेक्शन। यहां पुराने वाराणसी की संकरी गलियां और नया बनारस, दोनों मिलते हैं। एक तरफ श्रद्धालु काशी विश्वनाथ के दर्शन कर लौटते हैं, दूसरी तरफ BHU की युवा भीड़ नए विचारों पर बहस करती है। सड़क किनारे मिट्टी के कुल्हड़ बनाते कुम्हारों की रोज़ी-रोटी पर यहां की भीड़ का सीधा असर दिखता है—कुल्हड़ का हर घूंट स्थानीय कारीगरों की अर्थव्यवस्था को थोड़ा-थोड़ा सहारा देता है।

मोदी युग में वाराणसी के शहरी विकास पर जब भी चर्चा होती है—कॉरिडोर, सड़कों, घाटों की मरम्मत, रोशनी—तो यहां बैठे लोग सिर्फ तालियां नहीं बजाते। सवाल भी पूछते हैं: क्या पुरानी बस्तियों की सांस बची रहेगी? छोटे कारोबारी कैसे टिकेंगे? तीर्थ और पर्यटन की रफ्तार में रोज़गार कितनी दूर तक जाएगा? यह दुकान ऐसे सवालों के लिए ‘ओपन-माइक’ है—जहां कोई भी खड़ा होकर अपनी बात कह सकता है।

यहां रुकना सियासत के लिए एक संकेत भी है। देश में चाय की राजनीति का इतिहास पुराना है—2014 के चुनावों में ‘चाय पर चर्चा’ को आपने देखा है। लेकिन बनारस की खासियत यह है कि यहां चाय चर्चा को सिर्फ प्रचार नहीं, सहभागिता माना जाता है। शहर के लोग नेता को चाय पिलाते हैं, और बदले में जवाब मांगते हैं। यही रिश्ता इस दुकान को खास बनाता है—यह मेहमाननवाजी और जवाबदेही, दोनों का संगम है।

असी की इस चाय दुकान का भूगोल भी दिलचस्प है। लंका गेट, रविदास पार्क, अस्सी घाट, टकसाल दीवार, शिवाला—ये सब जगहें पैदल दूरी पर हैं। मतलब, सुबह घाट पर आरती देखने वाला यात्री शाम को यहीं चाय पीते हुए स्थानीय लोगों से शहर की ‘इनसाइड स्टोरी’ सुन लेता है। टूरिस्ट गाइडों की जगह अक्सर दुकानदार खुद शहर का मौखिक इतिहास सुनाने लगते हैं—किस गली में कौन-सा कारीगर, किस दुकान पर सबसे अच्छा रबड़ी, किस मोड़ पर सबसे ज्यादा जाम।

अब प्रसिद्धि के साथ आने वाली चुनौतियां भी हैं। भीड़ बढ़ी तो जगह कम पड़ती है, धैर्य की परीक्षा होती है। सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद फोटोग्राफी ज्यादा, बैठकर बात कम। लेकिन यही दुकान फिर अपने पुराने अंदाज में लौट आती है—“पहले चाय, फिर फोटो।” यहां की शर्तें आसान हैं—कुर्सी कहीं भी खींच लो, लेकिन बहस में खाली मत बैठो।

कई लोग पूछते हैं—क्या यह दुकान सिर्फ मोदी युग की कहानी है? नहीं। यह कहानी उससे आगे जाती है। यह उस बनारस की कहानी है जो बदलाव के साथ कदम मिलाता है, लेकिन अपनी बातचीत की परंपरा नहीं छोड़ता। यहां विचारधारा बदलती है, पर संवाद नहीं। काशी का दिल धड़कता रहे, इसलिए ऐसे अड्डों का जिंदा रहना जरूरी है।

राजनीतिक दृष्टि से देखें तो यह जगह ‘मूड इंडिकेटर’ की तरह काम करती है—लोग किस पर खुश हैं, किस बात पर नाराज, किन मुद्दों पर उलझन है। पत्रकार यहां आकर टटोलते हैं, शोधार्थी इंटरव्यू करते हैं, और नेता वर्करों की नब्ज की रिपोर्ट लेते हैं। यह अनौपचारिक जनमत का सेंटर है—जहां सैंपल साइज़ छोटा दिखता है, पर राय का विस्तार बहुत बड़ा होता है।

दुकान का ‘मेन्यू’ छोटा, पर ‘डिस्कोर्स’ बड़ा है। चाय—दूध, अदरक, इलायची, कुल्हड़ का मिट्टी वाला स्वाद। साथ में कभी कभार बनारसी ठाठ—मसाला, रबड़ी, या मौसम के हिसाब से नमकीन। और बातचीत? सीमा नहीं। कोई कहता है—“आज घाट पर भीड़ बहुत थी।” दूसरा बोलता है—“रेलवे स्टेशन का नया लुक कैसा लगा?” तीसरा जोड़ देता है—“छात्र संघ चुनाव वापस होंगे क्या?” चौथा हंसकर पूछता है—“टीम इंडिया का मिडिल ऑर्डर सुधरा?” यही बहसें शहर की वास्तविक तस्वीर बनाती हैं।

‘काशी का असी’ का पाठक जब यहां आता है, तो किताब और शहर एक-दूसरे में घुल जाते हैं। उपन्यास में जिस लोकतांत्रिक माहौल की चर्चा है—जहां कांग्रेसी, भाजपाई, समाजवादी, बसपाई एक जगह बैठें और बात करें—उसकी झलक आज भी मिल जाती है। फर्क इतना कि अब बातचीत के बीच एक-आध सेल्फी और इंस्टाग्राम स्टोरी भी बन जाती है।

यह दुकान यह भी याद दिलाती है कि वाराणसी का ब्रांड सिर्फ मंदिरों और गलियों से नहीं बनता; उन चेहरों से भी जो हर दिन सुबह दुकान खोलते हैं। जिन्होंने दशकों तक लोगों को बैठने की जगह दी, चाय परोसकर कहानियां सुनने दीं, और कभी-कभी नेताओं को भी उतनी ही दूरी पर बैठाया जितनी पर आम राहगीर बैठता है।

भविष्य क्या? शायद यहां किताबों की चर्चा और तेज होगी, शायद राजनीति पर सवाल और नुकीले होंगे, और शायद कुल्हड़ों की खनक पहले से ज्यादा सुनाई देगी। जो भी हो, असी चौराहे की यह चाय दुकान बताती है—बनारस में इतिहास लिखने के लिए कलम जरूरी नहीं; कभी-कभी एक कुल्हड़ और एक लंबी बातचीत काफी होती है।